लिसीएन्थस, भारत में उभरती हुई एक नई पुष्प प्रजाति है। लिसीएन्थस नीले रंग के गुलाब जैसे खूबसूरत फूलों और कटाई के बाद उत्कृष्ट फूलदान आयु के कारण, पिछले कुछ वर्षों से लिसीएन्थस का प्रचलन भारत में तेजी से बढ़ा है। इसका उपयोग मुख्यत: कटे हुए फूलों या गमले के रूप में किया जाता है। यह एक वार्षिक पौधा है जिसकी पुष्प डंडी लगभग 60 से 80 सेमी लंबी होती है, और प्रत्येक डंडी पर 5 से 7 फूल होते हैं। ये फूल खुलने के बाद लगभग एक सप्ताह से अधिक समय तक उपलब्ध रहते हैं और प्रत्येक कलियाँ कई दिनों तक एक के बाद एक खिलती रहती हैं। लिसीएन्थस की डबल, ट्रिपल और यहां तक कि बहुसंख्यक पंखुड़ियों वाली रंगबिरंगी किस्में बाजारों में उपलब्ध हैं। लिसीएन्थस, एक ठंडे प्रदेश का फूल है, इसलिए अच्छी उपज के लिए इसे ठंड में उगाया जाता है। भारत में इस फसल की खेती हिमालय पर्वत के मध्यम जलवायु वाले क्षेत्रों तथा तमिलनाडु के नीलगिरी पहाड़ी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जाती है। भाकृअनुप-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के क्षेत्रीय स्टेशन, कटराईं, कुल्लू, हिमाचल प्रदेश ने इस फूल के सफल उत्पादन के लिए कृषि तकनीकों का मानकीकरण किया है। मैदानी क्षेत्रों में लिसीएन्थस की उत्तम खेती के लिए प्राकृतिक रूप से हवादार पॉलीहाउस, कम लागत वाली पॉलीटनल तथा जलवायु नियंत्रित ग्रीनहाउस में लगाने की सिफारिश की गई है।
लिसीएन्थस की उच्च गुणवत्ता वाली फसल लेने के लिए दोमट बलुई मिट्टी अच्छी होती है। इसकी सफल खेती के लिए हल्की, उचित जल निकास और अच्छे वायु संचार वाली मिट्टी जिसका पी.एच. मान 6.5 से 7.2 और ई.सी. लगभग 1.5 एमएमएचओएस/सेमी हो, उच्चतम मानी जाती है। यदि पी.एच. मान 6.0 से कम हो तो इसकी वृद्धि के लिए हानिकारक होता है वहीं 7.5 से ऊपर का पी.एच. मान फूलों के रंग को हल्का कर देता है। ठीक उसी प्रकार उच्च नमक का स्तर (ईसी) होने से फूल आने में देरी होती है और अति संवेदनशील किस्मों में रोसेटिंग की समस्या को बढ़ावा मिलता है। इसके साथ ही उच्च आर्द्रता भी इस फसल को अधिक नुकसान पहुंचा सकती है।
सूर्य प्रकाश: बेहतर वृद्धि और उच्च गुणवत्ता वाले उन्नत फसल के लिए पर्याप्त मात्रा में प्रकाश की आवश्यकता होती है। इसीलिए फूलों की अधिक उपज के लिए आदर्श प्रकाश स्तर 4000 से 6000 फुट कैंडल होनी चाहिए। अगर प्रकाश की तीव्रता अधिक होगी तो अधिक मात्रा में फूल निकलते हैं लेकिन इससे फूलों का रंग हल्का पड़ जाता है।
तापमान: इसे ऐसे क्षेत्र में उगाना चाहिए जहां दिन में 6-8 घंटे तक संपूर्ण सूर्य की रोशनी तथा औसत दिन और रात का तापमान क्रमशः 20-24 डिग्री सेल्सियस और 16-18 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए। इसीलिए भारत में इस फसल की खेती ठंडे क्षेत्र जैसे हिमालय पर्वत के मध्यम जलवायु तथा तमिलनाडु की नीलगिरी पहाड़ी में सफलतापूर्वक की जा रही है। यदि रोपाई के प्रथम चार सप्ताह तापमान 28 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला जाए, तो कुछ संवेदनशील किस्मों में रोसेटिंग तथा समय से पहले फूल आने की संभावना बढ़ जाती है।
प्रवर्धन: लिसीएन्थस का प्रवर्धन मुख्यत: बीज, कलम और सूक्ष्म ऊतक प्रवर्धन विधि द्वारा किया जाता है। लेकिन बड़े पैमाने पर व्यावसायिक उत्पादन के लिए बीज का उपयोग किया जाता है। पहाड़ी क्षेत्रों में, इसकी बुवाई मध्य दिसंबर से फरवरी तक की जाती है। लिसीएन्थस के बीज बहुत छोटे होते हैं (19,000 बीज/ग्राम), और अंकुरण काफी धीमा होता है। अच्छे अंकुरण के लिए रात का तापमान 18 से 21 डिग्री सेल्सियस और दिन का तापमान 21 से 24 डिग्री सेल्सियस बनाए रखना चाहिए।
मिट्टी एवं क्यारी की तैयारी: लिसीएन्थस उत्पादन के लिए रोपाई से पहले मिट्टी की तैयारी एक महत्वपूर्ण घटक है। क्योंकि यह फसल मिट्टी से संबंधित बीमारियों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होती है, इसलिए इसे रोगमुक्त भूमि में उगाना आवश्यक है। मिट्टी को जीवाणु मुक्त करने के लिए फॉर्मेलडिहाइड, मिथाइल ब्रोमाइड (25-30 ग्राम/मी²) या बासमिड/डाजोमेट (30-40 ग्राम/मी²) का उपयोग किया जा सकता है। मिट्टी को रोगमुक्त करने के उपरांत इसे अच्छी तरह भुरभुरा करके 1 मी चौड़ी और 30 सेमी ऊंची क्यारी तैयार की जाती है।
रोपाई/पौधरोपण: आमतौर पर बीज बोने से लेकर खेत में पौधरोपण तक 8-12 सप्ताह का समय लगता है। सामान्यत: चार से पांच जोड़ी पत्तियों वाले पौधे रोपण के लिए उपयुक्त होते हैं। मध्य हिमालय के खुले मैदान की परिस्थितियों में लिसीएन्थस की रोपाई मध्य मार्च से जून तक की जाती है। फसल का रोपण घनत्व प्रकाश की स्थिति पर निर्भर करता है। आमतौर पर इसका रोपाई का घनत्व 64-96 पौधे/मी² होता है।
उर्वरकीकरण तथा सिंचाई: लिसीएन्थस के पौधों को उच्च पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है इसीलिए इसके पौधों को प्रति वर्ग मीटर के लिए लगभग 16-27 ग्राम नाइट्रोजन, 4.05 ग्राम फास्फोरस, 8-14 ग्राम पोटाश, 2.58 ग्राम कैल्शियम और 3.12 ग्राम मैग्नीशियम देना उपयुक्त होता है। उर्वरकीकरण के बाद लिसीएन्थस की सिंचाई पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। फसल के स्थापित होने के बाद क्यारियों में ड्रिप सिंचाई का प्रयोग उचित होता है। पौधों पर कलियों के आने के बाद ऊपरी सिंचाई तथा उर्वरक का प्रयोग बंद कर देना चाहिए क्योंकि इससे बोट्राइटिस रोग होने का प्रकोप बढ़ जाता है।
विशेष सस्य क्रियाएं
- पिंचिंग (शीर्ष कर्तन): लिसीएन्थस की पिंचिंग करने से इसके पौधे अधिक स्वस्थ और गुणवत्तायुक्त फूल देते हैं। रोपाई के 20-25 दिनों बाद एकल पिंचिंग करनी चाहिए। सामान्यत: पिंचिंग के कारण तने छोटे होते हैं और फूल आने में देरी होती है। वहीं, एक उच्च गुणवत्ता के पुष्प उत्पादन के लिए तनों को पहली तुड़ाई के बाद काट देना चाहिए।
- पौधों को सहारा देना: लिसीएन्थस के पौधे की औसत लंबाई लगभग 100-120 सेमी होती है, अतः पौधों को गिरने से बचाने के लिए पौधे को सहारा देना चाहिए, इसके लिए आमतौर पर दो परतों वाले नायलॉन जाल (15-20 सेमी) का इस्तेमाल किया जाता है।
- प्रकाश और छायांकन: प्रकाश की तीव्रता और दिन की अवधि इस फसल में फूलों की वृद्धि, फसल के समय और फूलों की गुणवत्ता को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करती है। अतः सर्दियों के दिनों में जब दिन की अवधि 12 घंटे से कम होती है तब पूरक प्रकाश का उपयोग, वहीं लंबे दिनों अर्थात् 14 घंटे से अधिक अवधि वाले दिनों में सुबह 10 बजे से दोपहर 2 बजे तक प्रकाश का व्यवधान फूल आने में तेजी लाता है।
- फसल की कटाई, रखरखाव और उत्पादन: जब लिसीएन्थस के पौधे में एक या उससे अधिक फूल खिलने लगते हैं, तब इसकी कटाई प्रातः काल की जाती है। कटाई के उपरांत कटे हुए गुच्छों को ठंडे पानी की बाल्टियों में रखा जाता है। उचित वातावरण और कृषि क्रियाओं के तत्पश्चात एक पौधे से लगभग 40-60 फूलों की उपज प्राप्त की जा सकती है।
किस्में: लिसीएन्थस किस्मों का चयन पंखुड़ियों की संख्या (एकल या दोहरा), रंग और बाजार की मांग के आधार पर किया जाता है। बाजार में नीले रंग के डबल पंखुड़ियों वाले फूलों की मांग अधिक होती है। भारत में उगाई जाने वाली व्यावसायिक किस्में – डबल ब्लू, इको डबल शैम्पेन, इको डबल लैवेंडर, इको डबल पिंक, आर्ट मरून, बोलेरो ब्लू पिकोटी, शैलोट ग्रीन, गावोट येलो, पर्पल फ्लेमिंगो और बोलेरो व्हाइट इत्यादि हैं।
पुष्प उत्पादन को प्रभावित करने वाली बीमारियों का नियंत्रण
रोज़ेटिंग (बौनापन):
- व्याधियाँ (पहचान) - तनों पर बहुत छोटे इंटरनोड होना।
- कारक - पौधों की युवा अवस्था में उच्च तापमान का होना। इन पौधों में लंबी अवधि के बाद फूल आते हैं।
- प्रबंधन - जिबरेलिक एसिड (10-100 पीपीएम) के एक या दो छिड़काव। 'एविला', 'बाल्बोआ' और 'कैटालिना' जैसी नई किस्में रोज़ेटिंग से अच्छी प्रतिरोधकता रखती हैं।
टिप बर्न:
- व्याधियाँ (पहचान) - फूलों की गुणवत्ता को अधिक प्रभावित कर भारी आर्थिक नुकसान पहुँचाना।
- कारक - यह प्रायः तनावपूर्ण परिस्थितियों में देखा जाता है। इसका एक मुख्य कारण कैल्शियम की कमी भी होती है।
- प्रबंधन - इससे बचने के लिए, 700-1400 पीपीएम जैविक कैल्शियम का टॉप ड्रेसिंग 2 मिली/पौधा (7-8 बार, 2-3 दिनों के अंतराल पर) की दर से किया जाना चाहिए।
बोट्रिटिस ब्लाइट (ग्रे मोल्ड):
- व्याधियाँ (पहचान) - लक्षण - सड़न, तथा तने का कैंकर।
- कारक - पंखुड़ियों पर यह छोटे, ब्लीच किए गए धब्बों के रूप में शुरू होता है, जो तेज़ी से पूरे फूल को प्रभावित करता है।
- प्रबंधन - इसको कम करने के लिए, सापेक्ष आर्द्रता को कम करना चाहिए। संध्या में ग्रीनहाउस को गर्म करके और अच्छे से वेंटिलेट करने से आर्द्रता कम करने में मदद मिलती है।
पाउडरी मिल्ड्यू:
- व्याधियाँ (पहचान) - पत्तियों पर पीले धब्बे और सफेद कवक वृद्धि।
- कारक - अधिक आर्द्रता।
- प्रबंधन - कैप्टन (0.2%) और डाइथेन एम-45 (2.0 ग्राम प्रति लीटर) के छिड़काव से इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है।"
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