निशिगंधा (रजनीगंधा) का पौधा अर्ध-कठोर और बहुवर्षीय होता है। इसकी पत्तियाँ घास की तरह पतली, नुकीली और 80 सेंटीमीटर तक लंबी होती हैं। इसके फूल को वैज्ञानिक भाषा में पुष्पक (फ्लोरेट) कहते हैं जो 50 से 125 सेंटीमीटर लंबी और मजबूत कणिश (स्पाइक) पर उत्पादित होते हैं। रजनीगंधा को कतरित पुष्प (कट फ्लावर) के रूप में घरों, कार्यालयों, होटलों आदि के अंदर रखने के लिए बहुत उपयुक्त माना जाता है, क्योंकि इसकी पुष्प दंडिका पर फूल 7-10 दिनों तक नीचे से ऊपर तक लगातार खिलते रहते हैं। इससे संपूर्ण कक्ष में मधुर सुगंध फैल जाती है। रजनीगंधा के फूलों की अधिकतर उपज को विच्छिन्न पुष्प (खुले पुष्प) के रूप में ही उपयोग किया जाता है। इसके विच्छिन्न फूलों को माला तैयार करने, केश-सज्जा, बटन के काज में लगाने, विवाह के मंडप सजाने तथा अनेक व्यक्तिगत, सामाजिक, सरकारी, धार्मिक एवं राजनैतिक अवसरों पर काम में लाया जाता है। रजनीगंधा के फूलों से सुगंधित तेल भी तैयार किया जाता है। इसे उच्च ग्रेड के सुगंधित द्रव्य/इत्र एवं प्रसाधन सामग्री में उपयोग किया जाता है। इसके निरपेक्ष (एब्सोल्यूट) को अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में उपलब्ध परफ्यूम में सबसे महंगा प्राकृतिक सुगंधित तेल माना जाता है।
रजनीगंधा में विभिन्न प्रकार की किस्में उपलब्ध हैं जिन्हें पुष्पक (फ्लोरेट) में उपस्थित दलपुंजों (पेटल्स) के विन्यास एवं पत्तियों में उपस्थित रंग-बिरंगापन (वेरिएशन) तथा उगाए जाने वाले क्षेत्रों के आधार पर अनेक नामों से जाना जाता है। सिंगल (एकल) किस्मों में दलपुंज खंडों की केवल एक ही पंक्ति पाई जाती है, जबकि डबल (दोहरा) किस्मों में दलपुंज खंडों की तीन अथवा अधिक पंक्तियाँ मौजूद रहती हैं। सामान्यतः हमारे देश में रजनीगंधा की निम्न किस्मों को उगाया जाता है:
रजनीगंधा की निम्न किस्में
- सिंगल किस्में (एकल दलपुंज): अर्का प्रज्वल, अर्का निरंतरा, फुले रजनी, रजत रेखा, श्रृंगार, मैक्सिकन सिंगल आदि।
- डबल किस्में (दोहरा दलपुंज): अर्का वैभव, स्वर्ण रेखा, सुवासिनी, पर्ल डबल आदि।
जलवायु: रजनीगंधा के पौधों के लिए अधिक आर्द्रता एवं मध्यम दर्जे का तापमान उपयुक्त रहता है। बहुत अधिक (40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर) अथवा कम (10 डिग्री सेल्सियस से नीचे) तापमान रहने से कणिशों की लंबाई, पुष्पकों के भार एवं गुणवत्ता में कमी आ जाती है। पौधों की उचित वृद्धि एवं विकास के लिए 20 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त रहता है। पुष्प कलियों के समुचित आरंभन, वृद्धि एवं विकास के लिए अधिकतम तापमान (21 डिग्री सेल्सियस) की आवश्यकता होती है।
मृदा का चयन: रजनीगंधा को हल्की बालू से लेकर चिकनी दोमट मृदा में उगाया जा सकता है। कम से कम 50 सेंटीमीटर गहरी, भुरभुरी, समुचित जल निकास वाली तथा पोषक तत्वों से भरपूर मृदा इसके सफल उत्पादन के लिए अच्छी रहती है। मृदा का पीएच मान 6.0 से 7.5 के बीच होना चाहिए।
रोपण का समय: रजनीगंधा की सफल खेती में शल्क कंदों (बल्ब) को रोपने का उचित समय पौधों की वानस्पतिक वृद्धि, पुष्पन तथा उपज पर सार्थक प्रभाव डालता है। रोपने का उचित समय एक स्थान से दूसरे स्थान पर विभिन्न हो सकता है। दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात, बिहार तथा अन्य समान जलवायु वाले क्षेत्रों में रजनीगंधा के शल्क कंदों की बुवाई मार्च से मई के महीनों के दौरान करनी चाहिए।
रोपण प्रक्रिया: रजनीगंधा को व्यावसायिक तौर पर इसके भूमिगत भाग जिन्हें शल्क कंद अथवा शल्क कंदिका (बल्बलेट) से प्रसारित किया जाता है। उच्च गुणों और उपज वाले पुष्प प्राप्त करने हेतु 1.50 सेंटीमीटर अथवा अधिक व्यास वाले शल्क कंदों का ही रोपण करना चाहिए। सामान्यतः रजनीगंधा को शल्क कंदों के पंक्ति से पंक्ति 20 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे 10 सेंटीमीटर के अंतराल पर बोया जाता है। शल्क कंदों को रोपने की गहराई उनके माप और उगाई जाने वाली मृदा की संरचना पर निर्भर करती है।
सिंचाई: रजनीगंधा के पौधों की समुचित वानस्पतिक वृद्धि एवं उत्पादन के लिए खेत में उपयुक्त नमी बनाए रखने हेतु सिंचाई की व्यवस्था करना आवश्यक है। शल्क कंदों का रोपण करते समय मृदा में समुचित नमी का होना अत्यंत आवश्यक है। अतः क्यारियों की अंतिम बार तैयारी करने से पूर्व उनमें एक हल्की सिंचाई अवश्य करें। तत्पश्चात शल्क कंदों का फुटाव होने तक सिंचाई नहीं करनी चाहिए। बाद की सिंचाईयों के अंतराल को पौधों के विकास की अवस्था, मृदा की संरचना तथा मौसम के आधार पर निर्धारित किया जाता है।
पोषक तत्व: रजनीगंधा की फसल के लिए अच्छी सड़ी हुई कंपोस्ट खाद को 8 से 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की तैयारी के पहले ही क्यारियों में मिला देना चाहिए। सामान्यतः इस फसल के लिए 250-350 किलोग्राम नाइट्रोजन, 150-250 किलोग्राम फास्फोरस तथा 100-150 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से आवश्यकता होती है।
फूलों की कटाई: शल्क कंद रोपने के 3-4 महीने पश्चात पौधों में पुष्पन आरंभ हो जाता है। कतरित पुष्प व्यवसाय के लिए पौधे से पूरी कणिश को सबसे नीचे के 1-2 जोड़े पुष्पकों की खिलने की अवस्था में काटा जाता है। कणिशों को तेज चाकू अथवा सिकेटियर की सहायता से धरातल से 4-6 सेंटीमीटर तना (स्केप) छोड़कर काटना चाहिए। कणिशों/पुष्पकों की कटाई/तुड़ाई ठंडे समय में ही सुबह अथवा शाम के दौरान करनी चाहिए। ऐसा करने से फूल अधिकतर समय तक तरोताजा बने रहेंगे तथा उनमें अधिक सुगंध भी बरकरार रहेगी। अगर पुष्पकों को सुगंध तेल का निष्कर्षण निकालने के लिए उपयोग करना है तो उनकी तुड़ाई सुबह 6-8 बजे तक अवश्य ही पूरी कर लेनी चाहिए।
सस्योत्तर देखभाल: कणिशों का 4 डिग्री सेल्सियस तापमान पर 48 से 72 घंटों तक भंडारण करने से भी उनकी जीवन अवधि बढ़ने में मदद मिलती है। कणिशों को भंडारित करने का इष्टतम तापमान 4 से 7 डिग्री सेल्सियस रहता है और उनको पांच दिनों तक भंडारित किया जा सकता है। विच्छिन्न पुष्पकों को 300 गेज मोटी पॉलिथीन फिल्म के थैले में, जिसमें शून्य संवातन (वायु संचार) हो, में पैकेजिंग करने से 4-5 दिनों तक तरोताजा रखा जा सकता है, जबकि खुली जगह में रखने से पुष्पक 1-2 दिन बाद ही खराब होने लगते हैं। विच्छिन्न पुष्पकों को 8-एचक्यूसी के 200 पीपीएम विलयन में डुबोकर 80 गेज की पॉलिथीन थैली में रखने से पांच दिनों तक तरोताजा रखा जा सकता है।
शल्क कंदों की खुदाई: शल्क कंदों को कंदिकाओं सहित उनकी उचित परिपक्वता की अवस्था पर जमीन से खोदा जाता है। यह अगली फसल में बेहतर वानस्पतिक वृद्धि एवं उपज प्राप्त करने के लिए आवश्यक कारक माना जाता है। सर्दियों में अथवा कुछ दिनों के लिए जब पौधों में पुष्पन बंद हो जाता है और उनकी बढ़वार रुक जाती है तब शल्क कंदों के पूर्णतया परिपक्व होने की अवस्था मानी जाती है। पुंज (क्लंप) को खोदने के लगभग एक सप्ताह पूर्व सिंचाई करना बंद कर देनी चाहिए। उगते पौधों से पुंजों को सावधानीपूर्वक खोदकर, उनकी पत्तियों को काटकर उनमें चिपकी हुई मिट्टी को साफ करके पुंज से शल्क कंदों और शल्क कंदिकाओं सहित अलग-अलग कर लिया जाता है।
एक गुच्छे में 2-15 शल्क कंद और 4-8 शल्क कंदिकाएं प्राप्त हो जाती हैं। अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए शल्क कंदों को रोपण के कम से कम 6 महीने पश्चात ही खोदना चाहिए। तत्पश्चात उन्हें परिपक्व (1.5 सेंटीमीटर से अधिक व्यास) और अपरिपक्व (1.00 सेंटीमीटर से कम व्यास) दो श्रेणियों में विभाजित कर लेना चाहिए। शल्क कंदों को सामान्य तापमान पर हवादार जगह में फैलाकर भंडारित किया जाता है। फफूंदी और सड़न से शल्क कंदों को बचाव करने के लिए उन्हें कुछ दिनों के अंतराल पर उलटते-पलटते रहना चाहिए।
उपज: इस फसल की उपज कई कारकों जैसे- रोपी गई किस्म, शल्क कंदों का आकार, रोपने का समय और अंतरण तथा अन्य सस्य तकनीकों पर निर्भर करती है। सामान्यतः 2 से 5 लाख प्रति हेक्टेयर कणिशों तथा 18 से 25 टन प्रति हेक्टेयर विच्छिन्न पुष्पकों की उपज मिल जाती है। साथ ही 20-30 टन प्रति हेक्टेयर पादप सामग्री भी प्राप्त की जा सकती है। फूलों को कतरित कणिशों, विच्छिन्न पुष्पों तथा सुगंधीय तेल के रूप में उपयोग करने से लगभग क्रमशः 50,000, 90,000 तथा 5 लाख रुपयों का शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
रोग: रजनीगंधा का पौधा बहुत सहिष्णु होता है। इस पर बहुत ही कम रोगों का संक्रमण होता है। कभी-कभी निम्न रोगों का फसल पर संक्रमण होता है:
- मूल विगलन (बेसल रॉट): प्रभावित पौधों के चारों तरफ जिनेब (डाइथेन एम-45) अथवा कार्बेन्डाजिम (0.3) के घोल का ड्रेचिंग करने से रोग की रोकथाम की जा सकती है।
- पुष्पगुच्छ अंगमारी (ब्लॉसम ब्लाइट): खड़ी फसल पर कार्बेन्डाजिम, बेनोमिल (0.1 से 0.2) के विलयन का छिड़काव करने से इस रोग का प्रभावी नियंत्रण किया जा सकता है।
कीट: रजनीगंधा की फसल पर चेपा (एफिड्स प्रजाति), काष्ठ कीट (थ्रिप्स सिम्प्लेक्स) तथा सूंडी (हेलियोथिस आर्मीजेरा) कीटों का सर्वाधिक प्रकोप होता है। चेपा और काष्ठ कीटों की रोकथाम के लिए फसल पर (डाइकोफोल) अथवा डाइमेथोएट (रोगोर) कीटनाशकों को 1.50 से 2.00 मिलीलीटर की दर प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करना चाहिए। सूंडियों को नियंत्रित करने के लिए फसल पर परफेनोफॉस (2.00 मिलीलीटर/लीटर) के घोल का छिड़काव करना लाभदायक रहता है।"
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